GMP का फुल फॉर्म ग्रे मार्केट प्रीमियम (Grey Market Premium) होता है। यह आईपीओ से जुड़ा होता है
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एक तरह का इलीगल प्रीमियम माना जाता है। इससे हमे यह पता चलता है कि कोई आईपीओ लिस्ट होने पर कैसा परफॉर्म करेगा, इस पर इन्वेस्टर जिन्होंने आईपीओ में इन्वेस्ट किया हुआ होता है
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किसी भी कंपनी का जब आईपीओ आता है तो उसका एक प्राइस बैंड फिक्स होता है। इस प्राइस से ऊपर जिस प्राइस पर इन्वेस्टर आईपीओ को खरीदने को तैयार होते हैं, उसी बढ़े हुए प्राइस को ग्रे मार्केट प्रीमियम कहा जाता है।
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इसे एक उदाहरण से समझिए। मान लीजिए कोई कंपनी X का आईपीओ लॉन्च होता है जिसका प्राइस 500 रूपए प्रति शेयर है। अब ग्रे मार्केट में इसको खरीदने के लिए लोग 50 रुपए अधिक देने को तैयार है। तो इस आईपीओ का जीएमपी यानी ग्रे मार्केट प्रीमियम 50 रुपए कहा जाएगा।
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यह एक तरह से काफी फायदेमंद होता है। और इसका उपयोग आईपीओ लेने वाले करते है। जीएमपी जितना ज्यादा होगा इसका मतलब है की इसका डिमांड उतना ज्यादा है।
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ऐसा नही है की आईपीओ में जीएमपी का सिर्फ फायदा ही है, इसके कई नुकसान भी है। कई बार किसी आईपीओ का जीएमपी तो काफी बढ़ा दिखता है लेकिन आईपीओ शेयर मार्केट में काफी कम प्राइस पर लिस्ट हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कई बार आईपीओ लाने वाली कंपनी इन्वेस्टर्स और प्रोमोटर के साथ मिल कर जीएमपी को मैनिपुलेट कर देती है।
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जैसे की हमने पहले ही आपको बताया कि ग्रे मार्केट अनरेगुलेटेड मार्केट है, जिसका कोई रेगुलेटर नहीं होता है। इसमें किए ट्रांजैक्शन को सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) नहीं देखती है इसलिए इसे न ट्रैक किया जा सकता है ना ही कुछ गड़बड़ होने पर तुरंत कार्रवाई की जा सकती है।
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हालाकि यह बायर और सेलर के बीच का एक समझौता है, इस वजह से इसे पूरी तरह से इलीगल भी नहीं कह सकते। यह अनरेगुलेटेड मार्केट है इसे पूरी तरह से इलीगल कहना सही नहीं होगा।